सोमवार, 5 जून 2023

श्लोकोंका प्रातःकाल पाठ करनेसे बहुत कल्याण होता है - दिन अच्छा बीतता है, दुःस्वप्न, कलिदोष, शत्रु, पाप और भवके भयका नाश होता है, अज्ञानीको ज्ञान प्राप्त होता है, निर्धन धनी होता है, प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् ।

 


प्रातः स्मरणीय श्लोक

निम्नलिखित श्लोकोंका प्रातःकाल पाठ करनेसे बहुत कल्याण होता है, जैसे- १ दिन अच्छा बीतता है, २-दुःस्वप्न, कलिदोष, शत्रु, पाप और भवके भयका नाश होता है, ३-विषका भय नहीं होता, ४-धर्मकी वृद्धि होती है, अज्ञानीको ज्ञान प्राप्त होता है, ५-रोग नहीं होता, ६-पूरी आयु मिलती है, ७- विजय प्राप्त होती है, ८-निर्धन धनी होता है, ९-भूख-प्यास और कामकी बाधा नहीं होती तथा १०-सभी बाधाओंसे छुटकारा मिलता है इत्यादि ।

निष्कामकर्मियों को भी केवल भगवत्प्रीत्यर्थ इन श्लोकों का पाठ करना चाहिये-

                                                         प्रातः स्मरणीय श्लोक

गणेशस्मरण-

                                                  प्रातः स्मरामि गणनाथमनाथबन्धुं

सिन्दूरपूरपरिशोभितगण्डयुग्मम् ।

उद्दण्डविघ्नपरिखण्डनचण्डदण्ड-

माखण्डलादिसुरनायकवृन्दवन्द्यम् ॥

'अनाथोंके बन्धु, सिन्दूरसे शोभायमान दोनों गण्डस्थलवाले, प्रबल विघ्नका नाश करनेमें समर्थ एवं इन्द्रादि देवोंसे नमस्कृत श्रीगणेशका मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।'

 विष्णुस्मरण-

प्रातः स्मरामि भवभीतिमहार्तिनाशं

नारायणं गरुडवाहनमब्जनाभम् ।

ग्राहाभिभूतवरवारणमुक्तिहेतुं

चक्रायुधं तरुणवारिजपत्रनेत्रम् ॥

'संसारके भयरूपी महान् दुःखको नष्ट करनेवाले, ग्राहसे गजराजको मुक्त करनेवाले, चक्रधारी एवं नवीन कमलदलके समान नेत्रवाले, पद्मनाभ गरुडवाहन भगवान् श्रीनारायणका मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।'

 शिवस्मरण-

                                                   प्रातः स्मरामि भवभीतिहरं सुरेशं

गङ्गाधरं वृषभवाहनमम्बिकेशम् ।

खट्वाङ्गशूलवरदाभयहस्तमीशं

संसाररोगहरमौषधमद्वितीयम् II

'संसारके भयको नष्ट करनेवाले, देवेश, गङ्गाधर, वृषभवाहन, पार्वतीपति, हाथमें खट्वाङ्ग एवं त्रिशूल लिये और संसाररूपी रोगका नाश करनेके लिये अद्वितीय औषध-स्वरूप, अभय एवं वरद मुद्रायुक्त हस्तवाले भगवान् शिवका मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।'

 देवीस्मरण-

                                              प्रातः स्मरामि शरदिन्दुक रोज्ज्वलाभां

सद्रत्नवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् I

दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तां

रक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम् ॥

'शरत्कालीन चन्द्रमाके समान उज्ज्वल आभावाली, उत्तम रत्नोंसे जटित मकरकुण्डलों तथा हारोंसे सुशोभित, दिव्यायुधोंसे दीप्त सुन्दर नीले हजारों हाथोंवाली, लाल कमलकी आभायुक्त चरणोंवाली भगवती दुर्गा देवीका मैं प्रातःकाल स्मरण करता हूँ।'

 सूर्यस्मरण-

प्रातः स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यं

रूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषि ।

सामानि यस्य किरणाः प्रभवादिहेतुं

ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यमचिन्त्यरूपम् II

'सूर्यका वह प्रशस्त रूप जिसका मण्डल ऋग्वेद, कलेवर यजुर्वेद तथा किरणें सामवेद हैं। जो सृष्टि आदिके कारण हैं, ब्रह्मा और शिवके स्वरूप हैं तथा जिनका रूप अचिन्त्य और अलक्ष्य है, प्रातः काल मैं उनका स्मरण करता हूँ।'

 त्रिदेवों के साथ नवग्रहस्मरण-

ब्रह्मा मुरारिस्त्रिपुरान्तकारी

भानुः शशी भूमिसुतो बुधश्च ।

गुरुश्च शुक्रः शनिराहुकेतवः

कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥

-(मार्क० स्मृ० पृ० ३२)

'ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु —ये सभी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय करें।'

 ऋषिस्मरण-

भृगुर्वसिष्ठः क्रतुरङ्गिराश्च

मनुः पुलस्त्यः पुलहश्च गौतमः ।

रैभ्यो मरीचिश्च्यवनश्च दक्षः

कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥

-(वामनपु० १४ । ३३)

'भृगु, वसिष्ठ, क्रतु, अङ्गिरा, मनु, पुलस्त्य, पुलह, गौतम, रैभ्य, मरीचि, च्यवन और दक्ष—ये समस्त मुनिगण मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय करें ।

सनत्कुमारः सनकः सनन्दनः सनातनोऽप्यासुरिपिङ्गलौ च ।

सप्त स्वराः सप्त रसातलानि कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥

सप्तार्णवाः सप्त कुलाचलाश्च सप्तर्षयो द्वीपवनानि सप्त ।

भूरादिकृत्वा भुवनानि सप्त कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥

-(वामनपु० १४ । २४, २७)

'सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, आसुरि और पिङ्गल-ये ऋषिगण; षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत तथा निषाद-ये सप्त स्वर; अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल तथा पाताल — ये सात अधोलोक सभी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय करें। सातों समुद्र, सातों कुलपर्वत, सप्तर्षिगण, सातों वन तथा सातों द्वीप, भूर्लोक, भुवर्लोक आदि सातों लोक सभी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय करें।' प्रकृतिस्मरण-

पृथ्वी सगन्धा सरसास्तथापः

स्पर्शी च वायुर्ज्वलितं च तेजः ।

नभः सशब्दं महता सहैव

कुर्वन्तु सर्वे मम सुप्रभातम् ॥

-(वामनपु० १४ । २६)

'गन्धयुक्त पृथ्वी, रसयुक्त जल, स्पर्शयुक्त वायु, प्रज्वलित तेज, शब्दसहित आकाश एवं महत्तत्त्व - ये सभी मेरे प्रातःकालको मङ्गलमय करें ।'

इत्थं प्रभाते परमं पवित्रं पठेत् स्मरेद्वा शृणुयाच्च भक्त्या ।

दुःस्वप्ननाशस्त्विह सुप्रभातं भवेच्च नित्यं भगवत्प्रसादात् ।।

-(वामनपुर १४ । २८)

'इस प्रकार उपर्युक्त इन प्रातःस्मरणीय परम पवित्र श्लोकोंका जो मनुष्य भक्तिपूर्वक प्रातःकाल पाठ करता है, स्मरण करता है अथवा सुनता है, भगवद्द्यासे उसके दुःस्वप्नका नाश हो जाता है और उसका प्रभात मङ्गलमय होता है।'

ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः, अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे स्थाने.... नामसंवत्सरे. ऋतौ " मासे. • पक्षे.... तिथौ .... दिने प्रातःकाले.... गोत्रः, शर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं हास्तनसूर्योदयादारभ्य अद्यतनसूर्योदयपर्यन्तं श्वासक्रियया भगवता कारितं 'अजपागायत्रीजपकर्म' भगवते समर्पये । ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु ।

 


अजपाजप

मानव-शरीर अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ है। यदि शास्त्रके अनुसार इसका उपयोग किया जाय तो मनुष्य ब्रह्मको भी प्राप्त कर सकता है। इसके लिये शास्त्रों में बहुत-से साधन बतलाये गये हैं। उनमें सबसे सुगम साधन है. -'अजपाजप'। इस साधनसे पता चलता है कि जीवपर भगवान्‌की कितनी असीम अनुकम्पा है। अजपाजपका संकल्प कर लेनेपर चौबीस घंटोंमें एक क्षण भी व्यर्थ नहीं हो पाता - चाहे हम जागते हों, स्वप्नमें हों या सुषुप्तिमें हों, प्रत्येक स्थितिमें 'हंसः का जप श्वास- क्रियाद्वारा अनायास होता ही रहता है। संकल्प कर देनेसे मनुष्य द्वारा किया हुआ माना जाता है।

(क) किये हुए अजपाजपके समर्पणका संकल्प - 'ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः, अद्य ब्रह्मणोऽह्नि द्वितीयपरार्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरेऽष्टाविंशतितमे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे भारतवर्षे स्थाने.... नामसंवत्सरे. ऋतौ " मासे. • पक्षे.... तिथौ .... दिने प्रातःकाले.... गोत्रः, शर्मा (वर्मा, गुप्तः) अहं हास्तनसूर्योदयादारभ्य अद्यतनसूर्योदयपर्यन्तं श्वासक्रियया भगवता कारितं 'अजपागायत्रीजपकर्म' भगवते समर्पये । ॐ तत्सत् श्रीब्रह्मार्पणमस्तु ।

(ख) आज किये जाने वाले अजपाजप का संकल्प -किये गये अजपाजप को भगवान्‌ को अर्पित कर आज सूर्योदय से लेकर कल सूर्योदय तक होने वाले अजपाजप का संकल्प करे– 'ॐ विष्णुः' से प्रारम्भ कर....'अहं' तक बोलने के बाद आगे कहे- अद्य सूर्योदयादारभ्य श्वस्तनसूर्योदयपर्यन्तं षट्शताधिकैकविंशतिसहस्र- (२१६००) संख्याकोच्छ्वासनिः श्वासाभ्यां (हंसं सोहंरूपाभ्यां गणेशब्रह्मविष्णुमहेशजीवात्मपरमात्मगुरुप्रीत्यर्थमजपागायत्रीजपं करिष्ये

इसके बाद भगवन्नामों का कीर्तन करे। तदनन्तर नीचे लिखे श्लोकों का पाठ करे।

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती । करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम् ॥

 


    प्रातः जागरणके पश्चात् स्नान से पूर्व के कृत्य

प्रातःकाल उठने के बाद स्नान से पूर्व जो आवश्यक विभिन्न कृत्य है, शास्त्रोंने उनके लिये भी सुनियोजित विधि-विधान बताया है। गृहस्थको अपने नित्य कर्मो के अन्तर्गत स्नानसे पूर्वके कृत्य भी शास्त्र-निर्दिष्ट- पद्धतिसे ही करने चाहिये; क्योंकि तभी वह अग्रिम षट्कर्मोक करनेका अधिकारी होता है। अतएव यहाँपर क्रमशः जागरण-कृत्य एवं स्नान-पूर्व- कृत्योंका निरूपण किया जा रहा है।

ब्राह्म मुहूर्त में जागरण सूर्योदय से चार घड़ी (लगभग डेढ़ घंटे) पूर्व ब्राह्ममुहूर्त में ही जग जाना चाहिये। इस समय सोना शास्त्र में निषिद्ध है ।

 

करावलोकन – आँखों के खुलते ही दोनों हाथों की हथेलियों को देखते हुए निम्नलिखित श्लोक का पाठ करे-

कराग्रे वसते लक्ष्मीः करमध्ये सरस्वती ।

करमूले स्थितो ब्रह्मा प्रभाते करदर्शनम् ॥  

                                                                                (आचारप्रदीप)

'हाथ के अग्रभाग में लक्ष्मी, हाथ के मध्य में सरस्वती और हाथ के मूलभाग में ब्रह्माजी निवास करते हैं,  अतः प्रातःकाल दोनों हाथों का अवलोकन करना चाहिये।'

भूमि-वन्दना – शय्या से उठकर पृथ्वी पर पैर रखने के पूर्व पृथ्वी माता का अभिवादन करे और उनपर पैर रखने की विवशता के लिये उनसे क्षमा माँगते हुए निम्न श्लोकका पाठ करे-

समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डिते ।

विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यं पादस्पर्शं क्षमस्व मे ॥

'समुद्ररूपी वस्त्रों को धारण करने वाली, पर्वतरूप स्तनों से मण्डित भगवान् विष्णु की पत्नी पृथ्वीदेवि ! आप मेरे पाद-स्पर्श को क्षमा करें।'

मङ्गल-दर्शन – तत्पश्चात् गोरोचन, चन्दन, सुवर्ण, शङ्ख, मृदंग, दर्पण, मणि आदि माङ्गलिक वस्तुओं का दर्शन करे तथा गुरु, अग्नि और सूर्य को नमस्कार करे ।

पिता, गुरु एवं ईश्वर का अभिवादन - पैर, हाथ-मुख धोकर माता, कुल्ला करे। इसके बाद रात का वस्त्र बदलकर आचमन करे। पुनः निम्नलिखित श्लोकोंको पढ़कर सभी अङ्गोंपर जल छिड़के। ऐसा करने से मानसिक स्नान हो जाता |

मानसिक शुद्धिका मन्त्र-

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।

यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥

अतिनीलघनश्यामं नलिनायतलोचनम् ।

स्मरामि पुण्डरीकाक्षं तेन स्नातो भवाम्यहम् ॥ 

                                         (आचारभूषण, पृ० ४ में वामनपुराणका वचन)

इसके बाद मूर्तिमान् भगवान् माता-पिता एवं गुरुजनों का अभिवादन करे, फिर परमपिता परमात्मा का ध्यान करे।

कर्म और उपासना का समुच्चय (तन्मूलक संकल्प) - इसके बाद परमात्मा से प्रार्थना करे कि 'हे परमात्मन्! श्रुति और स्मृति आपकी ही आज्ञाएँ हैं। आपकी इन आज्ञाओं के पालन के लिये मैं इस समय से लेकर सोने तक सभी कार्य करूँगा। इससे आप मुझ पर प्रसन्न हों, क्योंकि आज्ञापालन से बढ़कर स्वामी की और कोई सेवा नहीं होती-

त्रैलोक्यचैतन्यमयादिदेव! श्रीनाथ! विष्णो! भवदाज्ञयैव ।

प्रातः समुत्थाय तव प्रियार्थं संसारयात्रामनुवर्तयिष्ये ॥

सुप्तः प्रबोधितो विष्णो! हृषीकेशेन यत् त्वया ।

यद्यत् कारयसे कार्य तत् करोमि त्वदाज्ञया ॥ (व्यास)

आपकी यह भी आज्ञा है कि काम करनेके साथ-साथ मैं आपका स्मरण करता रहूँ। तदनुसार यथासम्भव आपका स्मरण करता हुआ और नाम लेता हुआ काम करता रहूँगा तथा उन्हें आपको समर्पित भी करता रहूँगा । इस कर्मरूप पूजासे आप प्रसन्न हों।

गृहस्थ के नित्यकर्म का फल-कथन II लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् । उद्यद्दिवाकरनिभोज्ज्वलकान्तिकान्तं विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ॥

 

॥ श्रीहरिः ॥

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ श्रीमातापितृभ्यां नमः | श्रीगुरुभ्यो नमः ॥

नित्यकर्म-पूजाप्रकाश

लम्बोदरं परमसुन्दरमेकदन्तं रक्ताम्बरं त्रिनयनं परमं पवित्रम् ।

उद्यद्दिवाकरनिभोज्ज्वलकान्तिकान्तं विघ्नेश्वरं सकलविघ्नहरं नमामि ॥

 

गृहस्थके नित्यकर्मका फल-कथन

 

अथोच्यते गृहस्थस्य नित्यकर्म यथाविधि ।

यत्कृत्वानृण्यमाप्नोति दैवात् पैत्र्याच्च मानुषात् ॥

(आश्वलायन)

शास्त्रविधिके अनुसार गृहस्थके नित्यकर्मका निरूपण किया जाता है, जिसे करके मनुष्य देव-सम्बन्धी, पितृ-सम्बन्धी और मनुष्य-सम्बन्धी तीनों ऋणों से मुक्त हो जाता है।

'जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिर्ऋणवा जायते' (तै० सं० ६ । ३ । १० । ५) के अनुसार मनुष्य जन्म लेते ही तीन ऋणों वाला हो जाता है। उससे अनृण होने के लिये शास्त्रों ने नित्यकर्म का विधान किया है। नित्यकर्म में शारीरिक शुद्धि, सन्ध्यावन्दन, तर्पण और देव-पूजन प्रभृति शास्त्रनिर्दिष्ट कर्म आते हैं। इनमें मुख्य निम्नलिखित छः कर्म बताये गये हैं-

सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम् ।

वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने ॥

(बृ० प० स्मृ० १ । ३९)

मनुष्य को स्नान, सन्ध्या, जप, देवपूजन, बलिवैश्वदेव और अतिथि- सत्कार— ये छः कर्म प्रतिदिन करने चाहिये ।


१-यहाँ स्नान शब्द स्नान-पूर्वके सभी कृत्योंके लिये उपलक्षक रूपमें निर्दिष्ट है। 'पाठक्रमादर्थक्रमो बलीयान्'के आधारपर प्रथम स्नानके पश्चात् संध्या समझनी चाहिये।

शुक्रवार, 2 जून 2023

सफला एकादशी व्रत कथा, व्रत का फल एवं महत्व

 

          सफला एकादशी

 

युधिष्ठिर ने पूछा-स्वामिन्! पौष मास के कृष्णपक्ष (गुज., महा. के लिए मार्गशीर्ष) में जो एकादशी होती है. उसका क्या नाम है ? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता की पूजा की जाती है ? यह बताइये।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा-राजेन्द्र बड़ी-बड़ी दक्षिण वाले यज्ञों से भी मुझे उतना संतोष नहीं होता, जितना एकादशी व्रत के अनुष्ठान से होता है। पौष मास के कृष्ण पक्ष में 'सफला' नाम की एकादशी होती है। उस दिन विधिपूर्वक भगवान नारायण की पूजा करनी चाहिए। जैसे नागों में शेष नाग, पक्षियों में गरुड़ तथा देवताओं में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण व्रतों में एकादशी तिथि श्रेष्ठ है।

राजन् ! ‘सफला एकादशी' को नाम मंत्रों का उच्चारण करके नारियल के फल, सुपारी, बिजौरा तथा जमीरा नींबू, अनार, सुन्दर आँवला, लौंग, बेर तथा विशेषतः आम के फलों और धूप-दीप से श्रीहरि का पूजन करे । 'सफला एकादशी' को विशेष रूप से दीप दान करने का विधान है। रात को वैष्णव पुरुषों के साथ जागरण करना चाहिए। जागरण करने वाले को जिस फल की प्राप्ति होती है, वह हजारों वर्ष तपस्या करने से भी नहीं मिलता।

नृपश्रेष्ठ ! अब 'सफला एकादशी' की शुभकारिणी कथा सुनो। चम्पावती नाम से विख्यात एक पुरी है, जो कभी राजा माहिष्मत की राजधानी थी। राजर्षि माहिष्मत के पाँच पुत्र थे। उनमें जो ज्येष्ठ था, वह सदा पापकर्म में ही लगा रहता था। परस्त्रीगामी और वेश्यासक्त था। उसने पिता के धन को पापकर्म में ही खर्च किया। वह सदा दुराचारपरायण तथा वैष्णवों और देवताओं की निन्दा किया करता था। अपने पुत्र को ऐसा पापाचारी देखकर राजा माहिष्मत ने राजकुमारों में उसका नाम लुम्भक रख दिया। फिर पिता और भाइयों ने मिलकर उसे राज्य से बाहर निकाल दिया। लुम्भक गहन वन में चला गया। वहीं रहकर उसने प्रायः समूचे नगर का धन लूट लिया। एक दिन जब वह रात में चोरी करने के लिए नगर में आया तो सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया। किन्तु जब उसने अपने को राजा माहिष्मत का पुत्र बतलाया तो सिपाहियों ने उसे छोड़ दिया। फिर वह वन में लौट आया और मांस तथा वृक्षों के फल खाकर जीवन निर्वाह करने लगा। उस दुष्ट का विश्राम स्थान पीपल वृक्ष के निकट था। वह पीपल का वृक्ष बहुत वर्षों पुराना था। उस वन में वह वृक्ष एक महान देवता माना जाता था। पापबुद्धि लुम्भक वहीं निवास करता था।

एक दिन किसी संचित पुण्य के प्रभाव से उसके द्वारा एकादशी के व्रत का पालन हो गया। पौष मास में कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन पापिष्ठ लुम्भक ने वृक्षों के फल खाये और वस्त्रहीन होने के कारण रातभर जाड़े का कष्ट भोगा । उस समय न तो उसे नींद आयी और न आराम ही मिला। वह निष्प्राण-सा हो रहा था। सूर्योदय होने पर भी उसको होश नहीं आया। ‘सफला एकादशी' के दिन भी लुम्भक बेहोश पड़ा रहा। दोपहर होने पर उसे चेतना प्राप्त हुई । इधर-उधर दृष्टि डालकर वह आसन से उठा और लंगड़े की भाँति लड़खड़ाता हुआ वन के भीतर गया। वह भूख से दुर्बल और पीड़ित हो रहा था। राजन् ! लुम्भक बहुत से फल लेकर जब तक विश्राम स्थल पर लौटा, तब तक सूर्यदेव अस्त हो गये। तब उसने उस पीपल वृक्ष की जड़ में बहुत- -से फल निवेदन करते हुए कहा-' इन फलों से लक्ष्मीपति भगवान विष्णु संतुष्ट हों।' यों कहकर लुम्भक ने रात भर नींद नहीं ली। इस प्रकार अनायास ही उसने इस व्रत का पालन कर लिया। उस समय सहसा आकाशवाणी हुई- 'राजकुमार ! तुम 'सफला एकादशी' के प्रसाद से राज्य और पुत्र प्राप्त करोगे।' 'बहुत अच्छा' कहकर उसने वह वरदान स्वीकार किया। इसके बाद उसका रूप दिव्य हो गया। तबसे उसकी उत्तम बुद्धि भगवान विष्णु के भजन में लग गयी । दिव्य आभूषणों से सुशोभित होकर उसने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और पंद्रह वर्षों तक वह उसका संचालन करता रहा। उसको मनोज्ञ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब वह बड़ा हुआ, तब लुम्भक ने तुरंत ही राज्य की ममता छोड़कर उसे पुत्र को सौंप दिया और वह स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के समीप चला गया, जहाँ जाकर मनुष्य कभी शोक में नहीं पड़ता।

     राजन ! इस प्रकार जो 'सफला एकादशी' का उत्तम व्रत करता है, वह इस लोक में सुख भोगकर मरने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होता है। संसार में वे मनुष्य धन्य हैं, जो 'सफला एकादशी' के व्रत में लगे रहते हैं, उन्हीं का जन्म सफल है। महाराज ! इसकी महिमा को पढ़ने, सुनने तथा उसके अनुसार आचरण करने से मनुष्य राजसूय यज्ञ का फल पाता है।