बुधवार, 14 जून 2023

योगिनी एकादशी - आषाढ़ के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है ? कृपया उसका वर्णन कीजिये।

 योगिनी एकादशी


युधिष्ठिर ने पूछा- वासुदेव ! आषाढ़ के कृष्ण पक्ष में जो एकादशी होती है, उसका क्या नाम है ? कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले-नृपश्रेष्ठ ! आषाढ़ (गुजरात- महाराष्ट्र के अनुसार ज्येष्ठ) के कृष्ण पक्ष की एकादशी का नाम 'योगिनी' है। यह बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली है। संसार सागर में डूबे हुए प्राणियों के लिए यह सनातन नौका के समान है।

अलकापुरी के राजाधिराज कुबेर सदा भगवान शिव की भक्ति में तत्पर रहने वाले हैं। उनका हेममाली नामक एक यक्ष सेवक था, जो पूजा के लिए फल लाया करता था। हेममाली की पत्नी का नाम विशालाक्षी था। वह यक्ष कामपाश  में आबद्ध होकर सदा अपनी पत्नी में आसक्त रहता था। एक दिन हेममाली मानसरोवर से फूल लाकर अपने घर में ही ठहर गया और पत्नी के प्रेमपाश में खोया रह गया, अतः कुबेर के भवन में न जा सका। इधर कुबेर मन्दिर में बैठकर शिव का पूजन कर रहे थे। उन्होंने दोपहर तक फूल आने की प्रतीक्षा की। जब पूजा का समय व्यतीत हो गया तो यक्षराज ने कुपित होकर सेवकों से कहा-'यक्षो ! दुरात्मा हेममाली क्यों नहीं आ रहा है?"

यक्षों ने कहा- राजन् ! वह तो पत्नी की कामना में आसक्त हो घर में ही रमण कर रहा है।

यह सुनकर कुबेर क्रोध से भर गये और तुरन्त ही हेममाली को बुलवाया। वह आकर कुबेर के सामने खड़ा हो गया। उसे देखकर कुबेर बोले- ओ पापी ! अरे दुष्ट ! ओ दुराचारी ! तूने भगवान की अवहेलना की है, अतः कोढ़ से युक्त और अपनी उस प्रियतमा से वियुक्त होकर इस स्थान से भ्रष्ट होकर अन्यत्र चला जा ।'

कुबेर के ऐसा कहने पर वह उस स्थान से नीचे गिर गया। कोढ़ से सारा शरीर पीड़ित था परन्तु शिव-पूजा के प्रभाव से उसकी स्मरण शक्ति लुप्त नहीं हुई। तदनन्तर वह पर्वतों में श्रेष्ठ मेरुगिरी के शिखर पर गया। वहाँ पर मुनिवर मार्कण्डेयजी का उसे दर्शन हुआ। पापकर्मा यक्ष ने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिवर मार्कण्डेय ने उसे भय से काँपते देख कहा- 'तुझे कोढ़ के रोग ने कैसे दबा लिया?"

यक्ष बोला-मुने ! मैं कुबरे का अनुचर हेममाली हूँ। मैं प्रतिदिन मानसरोवर से फूल लाकर शिव-पूजा के समय कुबेर को दिया करता था। एक दिन पत्नी-सहवास के सुख में फँस जाने के कारण मुझे समय का ज्ञान ही नहीं रहा, अतः राजाधिराज कुबेर ने कुपित होकर मुझे शाप दे दिया, जिससे मैं कोढ़ से आक्रान्त होकर अपनी प्रियतमा से बिछुड़ गया। मुनिश्रेष्ठ ! संतो का चित्त स्वभावतः परोपकार में लगा रहता है, यह जानकर मुझ अपराधी को कर्त्तव्य का उपदेश दीजिये।

मार्कण्डेयजी ने कहा-तुमने यहाँ सच्ची बात कही है, इसलिए मैं तुम्हें कलयाणप्रद व्रत का उपदेश करता हूँ। तुम आषाढ़ मास के कृष्ण पक्ष की 'योगनी एकादशी' का व्रत करो। इस व्रत के पुण्य से तुम्हारा कोढ़ निश्चय ही दूर हो जायेगा।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- राजन् ! मार्कण्डेयजी के उपदेश से उसने 'योगिनी एकादशी' का व्रत किया, जिससे उसके शरीर का कोढ़ दूर हो गया। उस उत्तम व्रत का अनुष्ठान करने पर वह पूर्ण सुखी हो गया।

नृपश्रेष्ठ ! यह 'योगिनी' का व्रत ऐसा पुण्यशाली है कि अट्ठासी हजार ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो फल मिलता है, वही फल ‘योगिनी एकादशी' का व्रत करने वाले मनुष्य को मिलता है। 'योगिनी महान पापों को शान्त करने वाली और महान पुण्य-फल देने वाली है। इस माहात्म्य को पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

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