बुधवार, 31 मई 2023

मोक्षदा एकादशी व्रत का फल II Mokshada Ekadashi

 


मोक्षदा एकादशी

 

युधिष्ठिर बोले- देवदेवेश्वर ! मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष में कौन सी एकादशी होती है? उसकी क्या विधि है तथा उसमें किस देवता का पूजन किया जाता है ? स्वामिन् ! यह सब यथार्थ रूप से बताइये ।

श्रीकृष्ण ने कहा- नृपश्रेष्ठ ! मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का वर्णन करूँगा, जिसके श्रवणमात्र से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। उसका नाम 'मोक्षदा एकादशी' है जो सब पापों का अपहरण करने वाली है। राजन ! उस दिन यत्नपूर्वक तुलसी की मंजरी तथा धूप-दीपादि से भगवान दामोदर का पूजन करना चाहिए। पूर्वोक्त विधि से ही दशमी और एकादशी के नियम का पालन करना उचित है। 'मोक्षदा एकादशी' बड़े-बड़े पातकों का नाश करने वाली है। उस दिन रात्रि में मेरी प्रसन्नता के लिए नृत्य, गीत और स्तुति के द्वारा जागरण करना चाहिए। जिसके पितर पापवश नीच योनि में पड़े हों, वे इस एकादशी का व्रत करके इसका पुण्यदान अपने पितरों को करें तो पितर मोक्ष को प्राप्त होते हैं। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

पूर्वकाल की बात है, वैष्णवों से विभूषित परम रमणीय चम्पक नगर में वैखानस नामक राजा रहते थे। वे अपनी प्रजा का पुत्र की भाँति पालन करते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए राजा एक दिन रात को स्वप्न में अपने पितरों को नीच योनि में पड़ा हुआ देखा। उन सबको इस अवस्था में देखकर राजा के मन में बड़ा विस्मय हुआ और प्रातःकाल ब्राह्मणों से उन्होंने उस स्वप्न का सारा हाल कह सुनाया।

राजा बोले- ब्राह्मणों ! मैंने अपने पितरों को नरक में गिरा हुआ देखा है। वे बारंबार रोते हुए मुझसे यों कह रहे थे कि-'तुम हमारे तनुज हो, इसलिए इस नरक-समुद्र से हम लोगों का उद्धार करो।' द्विजवरो ! इस रूप में मुझे पितरों के दर्शन हुए हैं इससे मुझे चैन नहीं मिलता। क्या करू? कहाँ जाऊँ? मेरा हृदय रुँधा जा रहा है। द्विजोत्तमो ! वह व्रत, वह तप और वह योग, जिससे मेरे पूर्वज तत्काल नरक से छुटकारा पा जायें, बताने की कृपा करें। मुझ बलवान तथा साहसी पुत्र के जीते-जी मेरे माता-पिता घोर नरक में पड़े हुए हैं ! अतः ऐसे पुत्र क्या लाभ है?

ब्राह्मण बोले- राजन् ! यहाँ से निकट ही पर्वत मुनि का महान आश्रम है। वे भूत और भविष्य के भी ज्ञाता हैं। नृपश्रेष्ठ ! आप उन्हीं के पास चले जाइये।

ब्राह्मणों की बात सुनकर महाराज वैखानस शीघ्र ही पर्वत मुनि के आश्रम पर गये और वहाँ मुनिश्रेष्ठ को देखकर उन्होंने दण्डवत् प्रणाम करके मुनि के चरणों का स्पर्श किया।

मुनि ने भी राजा से राज्य के सातों अंगों की कुशलता पूछी। राजा बोले- स्वामिन्! आपकी कृपा से मेरे राज्य के सातों अंग सकुशल हैं किन्तु मैंने स्वप्न में देखा है कि मेरे पितर नरक में पड़े हैं। अतः बताइये कि किस पुण्य के प्रभाव से उनका वहाँ से छुटकारा होगा?

राजा की यह बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ पर्वत एक मुहूर्त तक ध्यानस्थ रहे। इसके बाद वे राजा से बोले:

'महाराज ! मार्गशीर्ष के शुक्ल पक्ष में जो 'मोक्षदा' नाम की एकादशी होती है, तुम सब लोग उसका व्रत करो और उसका पुण्य पितरों को दे डालो। उस पुण्य के प्रभाव से उनका नरक से उद्धार हो जायेगां' भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! मुनि की यह

बात सुनकर राजा पुनः अपने घर लौट आये। जब उत्तम मार्गशीर्ष मास आया, तब राजा वैखानस ने मुनि के कथनानुसार 'मोक्षदा एकादशी' का व्रत करके उसका पुण्य समस्त पितरों पिता को दे दिया। पुण्य देते ही क्षणभर में आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी। वैखानस के पिता पितरों सहित नरक से छुटकारा पा गये और आकाश में आकर राजा के प्रति यह पवित्र वचन बोले- 'बेटा! तुम्हारा कल्याण हो।' यह कहकर वे स्वर्ग में चले गये।

 राजन् ! जो इस प्रकार कल्याणमयी 'मोक्षदा एकादशी' का व्रत करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं और मरने के बाद वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। यह मोक्ष देने वाली 'मोक्षदा एकादशी' मनुष्यों के लिए चिन्तामणि के समान समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। इस माहात्म्य के पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।

उत्पत्ति एकादशी, एकादशी व्रत कथा - Ekadashi Vrat katha

       एकादशी व्रत कथा उत्पत्ति एकादशी)

(उत्पत्ति एकादशी का व्रत हेमन्त ऋतु में मार्गशीर्ष मास के कृष्ण पक्ष (गुजरात-महाराष्ट्र के अनुसार कार्तिक) को करना चाहिए। इसकी कथा इस प्रकार है :)

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा:- भगवन् ! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई? इस संसार में वह क्यों पवित्र मानी गयी तथा देवताओं को कैसे प्रिय हुई?

         श्रीभगवान बोलेः कुन्तीनन्दन ! प्राचीन समय की बात है। सत्ययुग में मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओं के लिए भयंकर था। उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुर ने इन्द्र को भी जीत लिया था । सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्ग से निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वी पर विचरा करते थे। एक दिन सब देवता महादेवजी के पास गये। वहाँ इन्द्र ने भगवान शिव के आगे सारा हाल कह सुनाया।

इन्द्र बोले :- महेश्वर ! ये देवता स्वर्गलोक से निकाले जाने के बाद पृथ्वी पर विचर रहे हैं। मनुष्यों के बीच रहना इन्हें शोभा नहीं देता। देव ! कोई उपाय बतलाइये। देवता किसका सहारा लें ?

         महादेवजी ने कहा :- देवराज ! जहाँ सबको शरण देने वाले, सबकी रक्षा में तत्पर रहने वाले जगत के स्वामी भगवान गरुड़ध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओं । वे तुम लोगों की रक्षा करेंगे।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:- युधिठिर ! महादेवजी की यह बात सुनकर परम बुद्धिमान देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओं के साथ क्षीरसागर में गये जहाँ भगवान गदाधर सो रहे थे।

इन्द्र ने हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की।

इन्द्र बोले- देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है! देव आप ही पति, आप ही मति और आप ही इस जगत् के पिता हैं। देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्यों के शत्रु हैं। मधुसूदन ! हम लोगों की रक्षा कीजिये। प्रभो ! जगन्नाथ ! अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले महाबली मुर नामक दैत्य ने इन सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर स्वर्ग से बाहर निकाल दिया है। भगवन् ! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल ! देवता भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। दानवों का विनाश करने वाले कमलनयन ! भक्तवत्सल ! देवदेवेश्वर ! जनार्दन ! हमारी रक्षा कीजिये.... रक्षा कीजिये। भगवन्! शरण में आये हुए देवताओं की सहायता कीजिये।

इन्द्र की बात सुनकर भगवान विष्णु बोले:- देवराज ! वह दानव कैसा है? उसका रुप और बल कैसा है तथा उस दुष्ट के रहने का स्थान कहाँ है ?

इन्द्र बोले :- देवेश्वर ! पूर्वकाल में ब्रह्माजी के वंश में तालजंघ नामक एक महान असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था। उसका पुत्र मुर दानव के नाम से विख्यात है। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओं के लिए भयंकर है । चन्द्रावती नाम से प्रसिद्ध एक नगरी है, उसी में स्थान बनाकर वह निवास करता है। उस दैत्य ने समस्त देवताओं को परास्त करके उन्हें स्वर्गलोक से बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही इन्द्र को स्वर्ग के सिंहासन पर बैठाया हैं अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ। उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओं को तो उसने उनके प्रत्येक स्थान से वंचित कर दिया है।

इन्द्र की यह बात सुनकर भगवान जनार्दन को बड़ा क्रोध आया। उन्होंने देवताओं को साथ लेकर चन्द्रावती नगरी में प्रवेश किया। भगवान गदाधर ने देखा कि 'दैत्यराज बारंबार गर्जना कर रहा है और उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग रहे हैं।' अब वह दानव भगवान विष्णु को देखकर बोला 'खड़ा रह... खड़ा रह।' उसकी यह ललकार सुनकर भगवान के नेत्र कोध से लाल हो गये। वे बोले:

'अरे दुराचारी दानव ! मेरी इन भुजाओं को देख।'  यह कहकर श्रीविष्णु ने अपने दिव्य वाणों से सामने आये हुए दानवों को मारना आरम्भ किया। दानव भय से विहल हो उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णु ने दैत्य सेना पर चक का प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों योद्धा मीत के मुख में चले गये।

इसके बाद भगवान मधुसूदन बदरिकाश्रम को चले गये। वहाँ सिंहावती नाम की गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डुनन्दन ! उस गुफा में एक ही दरवाजा था। भगवान विष्णु उसी में सो गये। वह दानव मुर भगवान को मार डालने के उद्योग में उनके पीछे-पीछे तो लगा ही था। अतः उसने भी उसी गुफा में प्रवेश किया। वहाँ भगवान को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा- 'यह दानवों को भय देने वाला देवता है। अतः निःसन्देह इसे मार डालूँगा ।' युधिष्ठिर ! दानव के इस प्रकार विचार करते ही भगवान विष्णु के शरीर से एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित थी। वह भगवान के तेज के अंश से उत्पन्न हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान था। युधिष्ठिर ! दानवराज मुर ने उस कन्या को देखा। कन्या ने युद्ध का विचार करके दानव के साथ युद्ध के लिए याचना की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकार की युद्धकला में निपुण थी। वह मुर नामक महान असुर उसके हुंकारमात्र से राख का ढेर हो गया। दानव के मारे जाने पर भगवान जाग उठे। उन्होनं दानव को धरती पर इस प्रकार निष्प्राण पड़ा देखकर कन्या से पूछा: 'मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था। किसने उसका वध किया है?"

कन्या बोली- स्वामिन ! आपके ही प्रसाद से मैंने इस महादैत्य का वध किया है।

श्रीभगवान ने कहाः- कल्याणी ! तुम्हारे इस कर्म से तीनों लोकों के मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं। अतः तुम्हारे मन में जैसी इच्छा हो उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँग लो। देवदुर्लभ होने पर भी वह वर में तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।

वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी।

उसने कहा:- 'प्रभो ! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपा से सब तीर्थों में प्रधान, समस्त विघ्नों का नाश करने वाली तथा सब प्रकार की सिद्धि देने वाली देवी होऊ । जनार्दन ! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिन को उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो । माधव ! जो लोग, उपवास, नक्त भोजन अथवा एक भुक्त करके मेरे व्रत का पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये।'

श्रीविष्णु बोले:- कल्याणी ! वह सब पूर्ण होगा।' तुम जो कुछ कहती हो,

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-युधिष्ठिर ! ऐसा वर पाकर महादेवता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों पक्षों की एकादशी समान रूप से कल्याण करने वाली है। इसमें शुक्ल और कृष्ण का भेद नहीं करना चाहिए। यदि उदयकाल में थोड़ी-सी एकादशी, मध्य में पूरी द्वादशी और अन्त में किंचित् त्रयोदशी हो तो वह 'त्रिस्पृशा एकादशी' कहलाती है। वह भगवान को बहुत ही प्रिय है। यदि एक 'त्रिस्पृशा एकादशी' को उपवास कर लिया जाय तो एक हजार एकादशी व्रतों का फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशी में पारण करने पर हजार गुना फल माना गया है। अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी- ये यदि जो मनुष्य एकादशी को उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान गरुड़ध्वज विराजमान रहते हैं। जो मानव हर समय एकादशी के माहात्म्य की पाठ करता है, उस हजार गौदान के पुण्य का फल प्राप्त होता है। जो दिन या रात में भक्तिपूर्वक इस माहात्म्य का श्रवण करते हैं, वे निःसन्देह ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाते हैं। एकादशी के समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।

 

1.  एकभुक्त अर्थात् दिन में एक बार फलाहार करना 

2. नक्त भोजन अर्थात दिन के आठवें भाग में जब सूर्य का तेज मंद पड़ जाता है। उसे नक्त जानना चाहिए। गृहस्थ के लिए तारों के दिखायी देने पर नम्त भोजन ( फलाहार) का विधान है और संन्यासी के लिए दिन के आठवें भाग में, क्योंकि उसके लिए रात में भोजन का निषेध है। पुर्वतिथि से विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिए।

परवर्तिनी तिथि से युक्त होने पर ही इनमें उपवास का विधान है। पहले दिन में और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातःकाल एकदण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथि का परित्याग करके दूसरे दिन की द्वादशीयुक्त एकादशी को ही उपवास करना चाहिए। यह विधि मैंने दोनों पक्षों की एकादशी के लिए बतायी है।

एकादशी व्रत कैसे करें ? एकादशी व्रत विधि ? एकादशी व्रत में क्या नहीं खाना चाहिये ? एकादशी व्रत में कौन से फल खायें ? एकादशी व्रत कैसे खोलें ?


एकादशी व्रत विधि

दशमी की रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें तथा भोग-विलास से भी दूर रहें। प्रातः एकादशी को लकड़ी का दातुन तथा 'पेस्टका उपयोग न करेंनींबूजामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उँगली से कंठ शुद्ध कर लें। वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी वर्जित हैअतः स्वयं गिरे हुए पत्ते का सेवन करें। यदि यह सम्भव न हो तो पानी से बारह कुल्ले कर लें। फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर गीता पाठ करें या पुरोहितादि से श्रवण करें। प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि :- 'आज मैं चोरपाखण्डी और दुराचारी मनुष्य से बात नहीं करूँगा और न ही किसी का दिल दुखाऊँगा। गौब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करूँगा। रात्रि को जागरण कर कीर्तन करूँगा, 'ॐ नमो भगवते वासुदेवायइस द्वादश अक्षर मंत्र अथवा गुरुमंत्र का जाप करूँगारामकृष्णनारायण इत्यादि विष्णुसहस्रनाम को कण्ठ का भूषण बनाऊँगा । ऐसा प्रतिज्ञा करके श्रीविष्णु भगवान का स्मरण कर प्रार्थना करें कि 'हे त्रिलोकपति ! मेरी लाज आपके हाथ हैअतः मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें।मौनजपशास्त्र-पठनकीर्तनरात्रि जागरण एकादशी व्रत में विशेष लाभ पहुँचाते हैं।

 

एकादशी के दिन अशुद्ध द्रव्य से बने पेय न पीयें। कोल्ड ड्रिंक्स एसिड आदि डाले हुए फलों के डिब्बाबंद रस को न पीयें। दो बार भोजन न करें। आइसक्रीम व तली हुई चीजें न खायें। फल अथवा घर में निकाला हुआ फल का रस अथवा थोड़े दूध का जल पर रहना विशेष लाभदायक है। व्रत के (दशमीएकादशी और द्वादशी)-इन तीन दिनों में काँसे के वर्तनमांसप्याजलहसुनमसूरउड़दचनेकोदो (एक प्रकार का धान)शाकशहदतेल और अत्यम्बुपान (अधिक जल का सेवन ) - इनका सेवन न करें। व्रत के पहले दिन (दशमी को) और दूसरे दिन (द्वादशी को) हविष्यान्न (जौगेहूँमूँगसेंधा नमककाली मिर्चशर्करा और गोघृत आदि) का एक बार भोजन करें।

फलाहारी को गोभीगाजरशलजमपालककुलफा का साग इत्यादि सेवन नहीं करना चाहिए। आमअंगूरकेलाबादामपिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिए।

जुआनिद्रापानपरायी निन्दाचुगलीचोरीहिंसामेथुनक्रोध तथा झूठकपटादि अन्य कुकर्मों से नितान्त दूर रहना चाहिए। बैल की पीठ पर सवारी न करें। भूलवश किसी निन्दीक से बात हो जाय तो इस दोष को दूर करने के लिए भगवान सूर्य के दर्शन तथा धूप-दीप से श्रीहरि की पूजा कर क्षमा माँग लेनी चाहिए।

एकादशी के दिन घर में झाडू नहीं लगायेंइससे चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है। इस दिन बाल नहीं कटायें। मधुर बोलेंअधिक न बोलेंअधिक बोलने से न बोलने योग्य वचन भी निकल जाते हैं। सत्य भाषण करना चाहिए। इस दिन यथाशक्ति अन्नदान करें किन्तु स्वयं किसी का दिया हुआ अन्न कदापि ग्रहण न करें। प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करनी चाहिए।

एकादशी के दिन किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाय तो उस दिन व्रत रखकर उसका फल संकल्प करके मृतक को देना चाहिए और श्री गंगाजी में पुण्य (अस्थि) प्रवाहित करने पर भी एकादशी व्रत रखकर व्रत फल प्राणी के निमत्त दे देना चाहिए। प्राणिमात्र को अन्तर्यामी का अवतार समझकर किसी से छल-कपट नहीं करना चाहिए। अपना अपमान करने या कटु वचन बोलने वाले पर भूलकर भी क्रोध नहीं करें। सन्तोष का फल सर्वदा मधुर होता है। मन में दया रखनी चाहिए। इस विधि से व्रत करने वाला उत्तम फल को प्राप्त करता है। द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्टान्न आदिदक्षिणादि से प्रसन्न कर उनकी परिक्रमा कर लेनी चाहिए।

 व्रत खोलने की विधिः- द्वादशी को सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए। 'मेरे सात जन्मों के शारीरिवाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुएयह भावना करके सात अंललि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलने चाहिए। 

 


संकटमोचन हनुमानाष्टक ।। Hanumanastak II बाल समय रवि भक्षि लियो तब, तीनहुं लोक भयो अंधियारो ।


संकटमोचन हनुमानाष्टक ॥
बाल समय रवि भक्षि लियो तब,
तीनहुं लोक भयो अंधियारो ।
ताहि सों त्रास भयो जग को,
यह संकट काहु सो जात न टारो ।
देवन आनि करी बिनती तब,
छांड़ि दियो रवि कष्ट निवारो ।
को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥ १ ॥

बालि की त्रास कपीस बसै गिरि,
जात महाप्रभु पंथ निहारो ।
चौंकि महामुनि शाप दियो तब,
चाहिए कौन बिचार बिचारो ।
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु,
सो तुम दास के सोक निवारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥ 2 ॥


अंगद के संग लेन गए सिय,
खोज कपीस यह बैन उचारो ।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु,
बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो ।
हेरि थके तट सिन्धु सबै तब,
लाए सिया-सुधि प्रान उबारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥३॥

रावण त्रास दई सिय को तब,
राक्षसि सों कहि सोक निवारो ।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु,
जाय महा रजनीचर मारो ।
चाहत सीय असोक सो आगि सु,
दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥४॥

बाण लाग्यो उर लछिमन के तब,
प्रान तजे सुत रावन मारो ।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत,
तबै गिरि द्रोण सु-बीर उपारो ।
आनि सजीवन हाथ दई तब,
लछिमन के तुम प्रान उबारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥५॥

रावन जुध्द अजान कियो तब,
नाग की फाँस सबै सिर डारो ।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल,
मोह भयो यह संकट भारो I
आनि खगेस तबै हनुमान जु,
बंधन काटि सुत्रास निवारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥६॥

बंधु समेत जबै अहिरावन,
लै रघुनाथ पाताल सिधारो ।
देवहिं पूजि भली विधि सों बलि,
देउ सबै मिलि मन्त्र विचारो ।
जाये सहाए भयो तब ही,
अहिरावन सैन्य समेत संहारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥७॥

काज किये बड़ देवन के तुम,
बीर महाप्रभु देखि बिचारो ।
कौन सो संकट मोर गरीब को,
जो तुमसे नहिं जात है टारो ।
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु,
जो कछु संकट होए हमारो ॥

को नहीं जानत है जग में कपि,
संकटमोचन नाम तिहारो ॥८॥

॥ दोहा ॥
लाल देह लाली लसे,
अरु धरि लाल लंगूर ।
बज्र देह दानव दलन,
जय जय जय कपि सूर ॥